बुधवार, दिसंबर 20, 2006

विद्यार्थी जीवन के सुपरहिट संवाद

मैं आज आपके सामने विद्यार्थी जीवन के सुपरहिट संवादों को लेकर हाज़िर हूँ.

संवाद काल, वातावरण और जगह के अनुसार बदल सकते हैं,..मगर मूल भावना कमोबेश यही होती है....

आप भी आनन्द लिजिये. (एक मेल द्वारा प्रेरित)

१. कक्षा में देर होने पर

"कब चालू हुआ?"

"अटेण्डेन्स हो गया क्या?"

"कल रात देर तक गप्पे मारते रहे यार"

"मैं क्या करूँ, कुमार बाथरूम में घुसा हुआ था"

"अब नींद नहीं खुली तो मैं क्या करूँ, ...बोल न,.....कल क्या पढाया था सर ने"

"अब पक्का कल से क्लॉस करूँगा."

"एक पेज़ दे न,.....अरे यार, पेन भी तो दे..."

'कल प्रॉक्सी मारा था क्या?'

'यार इस क्लॉस के लिए भी कोई सुबह उठ सकता है....."

२. क्लॉस के समय

"यस!! सर , द अन्सर इज़ ..हम्मम्मम्म.....आ आ आ..."

"नो सर, आई नो द अन्सर...आ, द अन्सर इज़ ....."

" ये प्रोफेसर अपने आपको न्यूटन समझता है"

"अरे यार, लेक्चर को छोड....अन्जली क्या लग रही है आज...."

"उसके बगल में नहीं बैठ सकता था....गधा......"

"मेरा असाइनमेन्ट तेरे पास ही है न?"

"अगर हेड आया तो कैन्टीन चलते हैं, अगर टेल आया तो अभी तुरन्त कैन्टीन चलेंगे!!"

"बॉस , क्लास खत्म होते ही चाय चाहिए......"


३. लैब में

"एक्सपेरिमेन्ट २ लिखा??"

"इधर करना क्या है??"

"ए भाई,.....मेरे को आता तो तेरे पास क्यूँ आता......बता न...."

"अरे तू तो बुरा मान गया......डाटा दिखा न........"


४. यूनिट टेस्ट


"यूनिट टेस्ट ???? .....अरे यार...... "

"क्या......अबे यूनिट टेस्ट में इतना टॉपिक है तो फाईनल में क्या होगा...."

"बॉस,...हो गया....और नहीं हो सकता.......मैं जान नहीं दे सकता......."

"ओह, ..इतना सिलेबस हो चुका.....?"

"अरे , आज कौन सा टेस्ट है?"

"ओए, सन्जीव कहाँ है, .....उसका रॉल न. मेरे बाद है,...वो नहीं आया तो मैं पक्का फेल....."


५. परीक्षा

" जो (मुझे) आता है, वो (पेपर में) नहीं आता, जो नहीं आता , वही आता है"

" ये प्रश्न दो साल से नहीं आया है.."

"अरे नहीं, ये लास्ट टाईम ही तो आया था......१० न. के प्रश्न को ३ न. में डाल दिया था"

"नहीं समझा तो रट ले"

"पिछले पेपर में कुछ तो आता था.....इसमें तो अण्डा आता है......"

" एक और दिन का गैप दे देता तो थर्ड वर्ल्ड वार हो जाता क्या......."


६. परीक्षा के बाद


"ये भी सिलेबस में था क्या?"

"अच्छा!! ये ऐसे होता है क्या....?"

" पहले में ३ मार्क्स , दूसरे में ज़ीरो, तीसरे में २, ...गया.....पक्का फेल इस बार....."

"यार नोटिस लगते ही फाड देना...........वो क्या सोचेगी मेरा मार्क्स देखकर......"


७. वाईवा

"सबमिशन अब तक हुआ नहीं है, वाईवा क्या घन्टा दूँगा.."

"ऐ ...रोहित.....तेरे से क्या पूछा....."

"एक्सटर्नल के घर में बच्चे नहीं हैं क्या...?"

"देख बॉस !! एक्सटर्नल भी आदमी है, उसको पता है स्टूडेन्ट्स की अब तक तैयारी नहीं हुई है....."

"देख, तू जो भी पढेगा , वो तेरे से नहीं पूछा जाएगा, तो जान किसलिए दे रहा है?"


८. सबमिशन

"ये भी छापना है क्या?"

"इसका भी प्रिन्ट-आउट लेना है क्या?"

"जय हो कम्प्यूटर बाबा की....जय हो Ctrl C - Ctrl V की......"

"तूझे सर का साईन मारना आता है क्या?"

"ये तूने लिखा क्या है???"

"जो वर्ड समझ में आ रहा है वो लिख,...जो नहीं आ रहा उसकी ड्राईंग कर दे...."

"फिर भी, कुछ तो आइडिया होगा??"

" अरे मैंने सन्दीप से लिखा था, मेरा तो चेक भी हो गया, तू भी वही कर दे."

"कोई हिन्ट......."

"अरे बाबा, घसीट दे......न तू समझेगा न वो.....


आपने कभी ऐसे संवाद बोले या नहीं?

शुक्रवार, दिसंबर 08, 2006

मार्केटिंग ग्लोबलाइजेशन

हुआ यों कि मैं सडक मार्ग से पैदल अपने मित्र के घर जा रहा था. आप पूछेंगे कि सडक मार्ग से ही क्यों जा रहा था? आपका प्रश्न उचित है, परन्तु हवाई मार्ग से न जा पाने के तीन कारण थे. पहला तो यह कि मेरे पास कोई वायुयान न था. दूसरा मैं हनुमान भी नहीं था जो कि श्री राम का स्विच दबाकर खुद को स्टार्ट कर लेता. और तीसरा और प्रमुख कारण यह कि अगर मेरे पास प्लेन होता भी तो मैं उसे लैण्ड कहाँ करवाता. मित्र के घर को वर्ल्ड ट्रेड सेन्टर में थोडे ही रूपान्तरित कर डालता. मुझे विषय से भटकने में उतना ही आनन्द आता है, जितना आपको अपने ब्लॉग पर टिपण्णियाँ देख कर आता होगा.

तो मेरे कदम शनै:-शनै: बढ रहे थे. तभी एक मोटरबाईक मेरे पीछे से नजदीक आकर रूकी और एक अपरिचित सज्जन ने पूछा - " क्या आपको इसी ओर जाना है?" मेरे मन में आया कि कह दूँ - "नहीं, जाना तो दूसरी ओर था, मगर आपके दर्शन हेतु इस ओर चला आया". खैर, मेरे हाँ कहने पर उन्होंने मुझे अपने साथ बिठाया मैं थोडा विस्मित था, कभी उन सज्जन की भलमनसाहत के बारे मे सोचता तो कभी किसी अनिष्ट की सोच कर डर जाता. मेरा परिचय जानने के बाद उन्होंने मेरे सिवा मेरे पूरे खानदान को जानने की बात बताई और इसके बाद वे इस प्रकार हँसे ( वे हँस रहे थे, ये तो बाद में पता स्पष्ट हुआ, पहले तो मैं किसी दुर्घटना की आशंका से भयाग्रस्त हो गया) मानो कौन बनेगा करोडपति का पन्द्रहवाँ प्रश्न सही कर के आ रहे हों. तभी रेलवे-क्रॉसिंग आ गया जहाँ एक मालगाडी खडी थी और फाटक बंद थे बाईक रोककर उन्होंने मुझसे अपने काम की बात शुरु की.

उन्होंने मुझसे प्रश्न किया -"क्या आप ग्लोबल नेटवर्क मार्केटिंग के विषय में जानकारी है?" पहले तो मैं उनकी बात ही नहीं समझ पाया दरअसल मैं जल्द से जल्द उनसे छुटकारा पाना चाहता था. फिर भी मैंने अपनी अनभिज्ञता जाहिर की. तब उन्होंने एक मार्केटिं कम्पनी, जिसके वे सदस्य थे, उसके प्लान समझाने शुरु किए. उन के अनुसार अगर मैं इस नेटवर्क से जुड जाऊँ तो मुझे एक वर्ष में इतने रूपए मिल जाएंगे, जिसकी कल्पना मैं स्वप्न में भी नहीं कर सकता था. उन सज्जन ने एक वर्ष में मिलने वाले जो आँकडे मुझे बताए, उन्हें मैं चौथी कक्षा से आज तक अंकों में लिखने में गलती करता हूँ.
उन्होंने कम्पनी का रटा हुआ बायो-डाटा टेलीविजन के कुशल समाचार वाचक की तरह सुनाया. मैं अत्यन्त परेशानी की स्थिति में था खडी हुई ट्रेन को मन ही मन मौलिक गालियाँ दिए जा रहा था. आप गालियों की मौलिकता का अन्दाज़ा इससे लगा सकते हैं कि अगर उन्हें सार्वजनिक कर दूँ, तो ओंकारा के निर्देशक मुझे अपना संवाद-लेखक न रखने पर खुद कोसने लगें.

तो वह अवांछित महोदय मेरे श्रवण-यन्त्रों को कष्ट पहुँचाने पर तुले हुए थे. उनका कहना था कि मुझ जैसे व्यक्ति ही इस नेटवर्क से जुड सकते हैं, क्योंकि मैं 'डायनामिक' हूँ. सहसा मुझे उनके साथ भी 'डायनामिक होने का मन हो आया, लेकिन शिष्टाचारवश ऐसा नहीं कर पाया. अन्तत: ट्रेन को मेरे दुर्भाग्य पर कुछ तरस आया और वह यों इठलाकर चली मानो मुझ पर बहुत बडा एहसान कर रही हो.

क्रॉसिंग पार करते ही बाजार शुरु होते ही मैंने कहा - 'बस, मुझे यहीं तक जाना है'. जबकि मेरे मित्र का घर वहाँ से अच्छे फासले पर था. इतना सुनकर उन्होंने दुपहिया रोकी और उनके चेहरे पर निराशा की लहरें इस प्रकार झलकी, जैसे वे निन्यानबे रन बनाकर कैच आउट हो गये हों. मैं धन्यवाद देकर तुरन्त निकलना चाहता था, मगर उन्होंने मुझे अपना कार्ड देते हुए अपने घर आने का निमन्त्रण दिया. मैंने अपनी स्वीकृति फटाफट दे दी ताकि बात खत्म की जा सके.

फिर बिना रूके मैं अपने मित्र के घर की ओर "जान बची तो लाखों पाए" के भावों के साथ दौड पडा. मित्र के घर पहुँच कर सबसे पहले मंने पानी मांगा. उन महापुरुष की वाणी से मेरे विचार सरकारी दफ्तर के फाईलों की तरह उपर नीचे हो कर बिखर रहे थे. मेरे मित्र ने विज्ञापन वाली मुस्कान के साथ कहा -"पानी बाद में पीना, एक मर्केटिंग कम्पनी का प्लान तो सुन लो, आज ही उसका मेम्बर बना हूँ. मेरी मानो तो तुम भी इसके सदस्य बन जाओ". अब मेरी हालत धोबी के कुत्ते की तरह हो चुकी थी. आसमान से तो गिरा ही था, अब खजूर को भी यहीं मिलना था. अब मुझे पता चला कि यह नेट्वर्क सचमुच कितना ग्लोबल हो चुका है.

भगवान बचाए इस खतरनाक ग्लोबलाइजेशन से!

बुधवार, अक्तूबर 18, 2006

दूरी : एक चिन्तन

कभी-कभी मेरे सोच की सुई किसी एक शब्द पर आकर अटक जाती है. आज भले ही सीडी प्लेयर और आईपोड का जमाना आ गया हो, परन्तु मेरे विचार ग्रामोफोन के रिकॉर्ड की तरह ही बजते हैं. इधर सुई अटकी और उधर एक ही राग का आलाप शुरु. और हम भी इतने आलसी हैं कि सुई को हटाने की कोशिश भी नहीं करते.

इस बार सुई अटकी है 'दूरी' पर. आरम्भ में तो शब्दों के प्रयोगों पर ही घोडा दौड रहा था, मगर इन बदतमीज घोडों के बारे में क्या बताऊँ, दौडते-दौडते न जाने कहाँ से कहाँ पहुंच गए. खैर, पाठकों से अपनी 'दूरी' न बढे, अत: सीधे मुद्दे पर आता हूँ.

एक सुबह जब सोकर जगा तो मन में प्रश्न आया कि जीवन में कितनी 'दूर' आ गया हूँ उत्तर तो खैर मिलना था नहीं, मगर एक बात समझ में आ गई कि 'दूरी' केवल लम्बाई ही नहीं बतलाती, यह समय के बीतने को भी दर्शाती है.

बस हो गई गडबड. विज्ञान ने बताया कि गति = (दूरी)/(समय) . अब अगर दूरी और समय को एक कर दिया तो गति बेचारी कहाँ जाएगी. कुछ उसका भी खयाल कीजिए. पर केवल गति से ही सब कुछ नहीं होता, यह खरगोश और कछुए की कहानी ने पहले ही बता दिया था. मगर आज कछुआ मेट्रो की सवारी कर रहा है, और खरगोश की कार का पेट्रोल खत्म हो रहा है.

अब लोगों से पूछिए चन्द्रमुखी जी का मकान कितनी दूर है? उत्तर मिलेगा बस दस मिनट का रास्ता है, अभी-अभी देवदास जी उन्हीं के यहाँ गए हैं. बस हो गया आपका काम. अब आप उलटे कदमों लौट आइए. आपकी दाल यहाँ नहीं गलेगी. चन्द्रमुखी जी से भी अपने दिल की दूरी बनाए रखिए. देखिए, अब ये दिल की दूरी भी आ गई. दिल की दूरी के मरीजों का बडा अजीब हाल देखा है. धीरे-धीरे वे अपनी सामान्य दिनचर्या से भी दूर होने लगते हैं. वैसे कुछ लोग तो एक से दूसरे के पास, दूसरे से तीसरे के पास और तीसरे से दूर होकर चौथे के पास जाने का क्रमबद्ध अभियान जारी रखते हैं.

बहुत से लोग बहुत सी चीजों को दूर से नमस्कार करते हैं. भई, जब नमस्कार ही करना है, तो थोडा निकट चले जाइए. सामने वाले का अपमान क्यों करते हैं? बचपन में हम पढते थे कि कौन सा ग्रह सूर्य के सबसे निकट है और कौन सा सबसे दूर. मगर अब तो विज्ञान ने ऐसी तरक्की कर ली है कि हमें बचपन में पढे गये पाठों से दूरी बनानी पडेगी. मुझे तो भय ही नहीं पूरा-पूरा शक है कि शायद कुछ दिनों में हमें यह पता चलने वाला है कि हम जिस ग्रह पर रहते हैं वो पृथ्वी नहीं कोई और ही है. वैसे भी वैज्ञानिकों का क्या भरोसा? वो तो दूरी को भी प्रकाश-वर्ष में मापते हैं.

दूरी की माप कदमों में भी की जाती है. आप इन्टरव्यू देने पहुँचे और आपसे सबसे पहला सवाल होता है - आप जिन सीढियों से होकर आये हैं, उनकी सँख्या बताइए. वाह भई, भविष्य में नौकरी देने के बाद सीढियाँ ही गिनवाओगे क्या? एक बार बचपन में मेरी माताजी ने मुझे किसी काम से घर से थोडी दूर जाने को कह रही थीं और मैं जाने में आनाकानी कर रहा था. माँ ने कहा बस पचास कदम ही तो है. मैंने काम तो कर दिया पर वापस आकर मां को पूछा - आखिर आपने मुझसे झूठ क्यों कहा? पूरे २४५ कदम हैं, चाहे तो गिन लिजिए. मैंने अभी-अभी गिने हैं.

गाडियों के पीछे अकसर लिखा होता है- 'कीप डिस्टेन्स'. अच्छा हुआ आपने लिख दिया, वरना हम तो अभी आपकी गाडी को ठोकने ही वाले थे. लोग अकसर पूछते हैं- आप कहीं दूर खोए हुए लग रहे हैं? भईया, अगर पास में खोने की जगह हो तो बता दो, आईंदा से वहीं खोया करेंगे. एक बडा प्रसिद्ध मुहावरा है- अभी दिल्ली दूर है. बतलाइए, दिल्ली वाले इसका प्रयोग कैसे करेंगे? मुहावरा बनाते समय सबका ख्याल रखना चाहिए न.

कुछ लोग दूर की कौडी लेकर आते हैं. क्या मजाक है? दूर गए ही थे तो कुछ और ले आते. बस एक कौडी. खैर, हमने भी एक फूटी कौडी रखी है अपने पास. ताकि कल को अगर कोई कहे कि मैं तुम्हें फूटी कौडी भी नहीं दूंगा, तो अपनी बत्तीसी के साथ यह दिखा सकूँ.

चलिए थोडा गीतों की ओर निगाह डालते हैं. एक साहब गुनगुना रहे थे - ' बडी दूर से आए हैं , प्यार का तोहफ़ा लाए हैं'. गोया नजदीक से आए होते तो तमंचा लेकर ही आते. एक दूसरा गीत है - ' बात निकली है तो फिर दूर तलक जाएगी. मेरा कहना है क्यों न जाए. आप दूरदर्शन देखते हैं, दूरभाष से सम्पर्क करते हैं, दूरबीन से दूर तक देख लेते हैं, और साथ ही आप अकसर दूरदृष्टि से काम लेते हैं, तो फिर बात आपकी दूर तक काहे नहीं जाएगी.

अत:, दूरियाँ हमारे जीवन के लिए आवश्यक बुराई है. अगर दूरी न रहे तो बॉलिवुड की साठ प्रतिशत फिल्मों को जबर्दस्त विषयाभाव से जूझना पडेगा. दूरी न रहे तो इसका बुरा असर हमारी याद्दश्त पर भी पड सकता है. अगर हम किसी से दूर नहीं होंगे, तो याद किसे करेंगे. ये और बात है कि कुछ लोग एक मेल की दूरी पर ही रहते हैं.

रेने देकार्त ने कहा था - मैं सोचता हूँ, इसलिए मैं हूँ. मेरा तो मानना है कि दूरी है इसलिए हम सब हैं. अच्छा, अब अगली पोस्ट तक के लिए मुझे भी आपसे दूर होना पडेगा. मगर आप टिप्पणियों से दूरी मत बना लिजिएगा.

शुक्रवार, अक्तूबर 06, 2006

आरम्भ


नमस्कार मित्रों,

वैसे तो मैं चिट्ठा-जगत का पुराना पाठक हूँ।साथ ही, अपनी कविताओं के माध्यम से (शब्दायन) आपके बीच होने का सौभाग्य भी प्राप्त है। पर यहाँ एक नए रूप में मुखातिब होना अच्छा लग रहा है।

इस चिट्ठे के आरम्भ के पीछे कई कारण और प्रेरणाएँ हैं। बहुत दिनों से यह विचार मन में चल रहा था कि गद्य के क्षेत्र में भी थोडी घुसपैठ की जाए। मगर हिम्मत जवाब दे जाती थी यह सोचकर कि अपनी व्यस्तताओं के बीच इसे नियमित रख पाने में सफल हो पाऊंगा या नहीं। इसी बीच मुझे एक दिव्य ज्ञान मिला कि सफलता और असफलता की चिन्ता करने वाले कायर होते हैं। फिर क्या था, दिल पर ले लिया हमने। और नतीजा आप देख ही रहे हैं।

दूसरी बात मैंने यह भी सोची कि यहाँ जैसे ढेर सारे जबरदस्त चिट्ठाकार हैं, तो मैं भी जबरदस्ती का चिट्ठाकार तो हो ही सकता हूँ। बस एक मात्रा का ही तो अन्तर है। फिर देखा कि कुछ लोग कविता लिखते-लिखते कुछ और भी लिखने लगे हैं। अब देखते हैं, हम कहाँ तक चल पाते हैं।

तो सारी तैयारी होने के बाद जब नाम रखने की बारी आई, हम उलझ से गए। और तभी हमारी उलझन को सुलझाने प्रतीक भाई प्रकट हुए। जैसे ही उन्होंने 'चिन्तन-कण' नाम बतलाया, हमने लपक कर लिया और झट से ब्लॉगर पर नामांकन करवा डाला। इतनी जल्दीबाज़ी दिखलाने का भी एक कारण था। मेरे साथ अकसर ऐसा होता है कि जो मैं सोचता हूँ, उसे करने में जरा भी देर हुई कि कोई दूसरा उसे कर डालता है। पता नहीं 'इन्फोरमेशन' कैसे लीक हो जाती है। जैसे मैं किसी मौलिक विषय पर फिल्म बनाने की बात सोच रहा होता हूँ, और कुछ ही दिनों में उस पर फिल्म बनकर फ्लॉप हो चुकी होती है। अब इसे क्या कहें? कहीं सोच का पेटेंट होता हो, तो जानकारी उपलब्ध कराई जाए।

अब जब इस पावन सरिता में छलाँग लगा ही चुका हूँ, तो डरना कैसा? पर आप सबों से एक ही गुजारिश है कि अगर तैरने की बजाए डूबने लगूँ तो कृपया मुझे किनारे तक छोड दीजिएगा, पिछले जन्म में किए गए पापों की सौगन्ध (वैसे इसकी पुनरावृत्ति इस जन्म में भी हो रही है शायद, पर पिछले जन्म वाली बात 'कन्फर्म' है) , दूबारा रूख नहीं करूँगा।

उधर नारद जी भी सघन चिकित्सा कक्ष से बाहर आने की तैयारी में हैं, मेरा यह प्रथम लेख उन्हें ही समर्पित।

- दीपक