बुधवार, अक्तूबर 18, 2006

दूरी : एक चिन्तन

कभी-कभी मेरे सोच की सुई किसी एक शब्द पर आकर अटक जाती है. आज भले ही सीडी प्लेयर और आईपोड का जमाना आ गया हो, परन्तु मेरे विचार ग्रामोफोन के रिकॉर्ड की तरह ही बजते हैं. इधर सुई अटकी और उधर एक ही राग का आलाप शुरु. और हम भी इतने आलसी हैं कि सुई को हटाने की कोशिश भी नहीं करते.

इस बार सुई अटकी है 'दूरी' पर. आरम्भ में तो शब्दों के प्रयोगों पर ही घोडा दौड रहा था, मगर इन बदतमीज घोडों के बारे में क्या बताऊँ, दौडते-दौडते न जाने कहाँ से कहाँ पहुंच गए. खैर, पाठकों से अपनी 'दूरी' न बढे, अत: सीधे मुद्दे पर आता हूँ.

एक सुबह जब सोकर जगा तो मन में प्रश्न आया कि जीवन में कितनी 'दूर' आ गया हूँ उत्तर तो खैर मिलना था नहीं, मगर एक बात समझ में आ गई कि 'दूरी' केवल लम्बाई ही नहीं बतलाती, यह समय के बीतने को भी दर्शाती है.

बस हो गई गडबड. विज्ञान ने बताया कि गति = (दूरी)/(समय) . अब अगर दूरी और समय को एक कर दिया तो गति बेचारी कहाँ जाएगी. कुछ उसका भी खयाल कीजिए. पर केवल गति से ही सब कुछ नहीं होता, यह खरगोश और कछुए की कहानी ने पहले ही बता दिया था. मगर आज कछुआ मेट्रो की सवारी कर रहा है, और खरगोश की कार का पेट्रोल खत्म हो रहा है.

अब लोगों से पूछिए चन्द्रमुखी जी का मकान कितनी दूर है? उत्तर मिलेगा बस दस मिनट का रास्ता है, अभी-अभी देवदास जी उन्हीं के यहाँ गए हैं. बस हो गया आपका काम. अब आप उलटे कदमों लौट आइए. आपकी दाल यहाँ नहीं गलेगी. चन्द्रमुखी जी से भी अपने दिल की दूरी बनाए रखिए. देखिए, अब ये दिल की दूरी भी आ गई. दिल की दूरी के मरीजों का बडा अजीब हाल देखा है. धीरे-धीरे वे अपनी सामान्य दिनचर्या से भी दूर होने लगते हैं. वैसे कुछ लोग तो एक से दूसरे के पास, दूसरे से तीसरे के पास और तीसरे से दूर होकर चौथे के पास जाने का क्रमबद्ध अभियान जारी रखते हैं.

बहुत से लोग बहुत सी चीजों को दूर से नमस्कार करते हैं. भई, जब नमस्कार ही करना है, तो थोडा निकट चले जाइए. सामने वाले का अपमान क्यों करते हैं? बचपन में हम पढते थे कि कौन सा ग्रह सूर्य के सबसे निकट है और कौन सा सबसे दूर. मगर अब तो विज्ञान ने ऐसी तरक्की कर ली है कि हमें बचपन में पढे गये पाठों से दूरी बनानी पडेगी. मुझे तो भय ही नहीं पूरा-पूरा शक है कि शायद कुछ दिनों में हमें यह पता चलने वाला है कि हम जिस ग्रह पर रहते हैं वो पृथ्वी नहीं कोई और ही है. वैसे भी वैज्ञानिकों का क्या भरोसा? वो तो दूरी को भी प्रकाश-वर्ष में मापते हैं.

दूरी की माप कदमों में भी की जाती है. आप इन्टरव्यू देने पहुँचे और आपसे सबसे पहला सवाल होता है - आप जिन सीढियों से होकर आये हैं, उनकी सँख्या बताइए. वाह भई, भविष्य में नौकरी देने के बाद सीढियाँ ही गिनवाओगे क्या? एक बार बचपन में मेरी माताजी ने मुझे किसी काम से घर से थोडी दूर जाने को कह रही थीं और मैं जाने में आनाकानी कर रहा था. माँ ने कहा बस पचास कदम ही तो है. मैंने काम तो कर दिया पर वापस आकर मां को पूछा - आखिर आपने मुझसे झूठ क्यों कहा? पूरे २४५ कदम हैं, चाहे तो गिन लिजिए. मैंने अभी-अभी गिने हैं.

गाडियों के पीछे अकसर लिखा होता है- 'कीप डिस्टेन्स'. अच्छा हुआ आपने लिख दिया, वरना हम तो अभी आपकी गाडी को ठोकने ही वाले थे. लोग अकसर पूछते हैं- आप कहीं दूर खोए हुए लग रहे हैं? भईया, अगर पास में खोने की जगह हो तो बता दो, आईंदा से वहीं खोया करेंगे. एक बडा प्रसिद्ध मुहावरा है- अभी दिल्ली दूर है. बतलाइए, दिल्ली वाले इसका प्रयोग कैसे करेंगे? मुहावरा बनाते समय सबका ख्याल रखना चाहिए न.

कुछ लोग दूर की कौडी लेकर आते हैं. क्या मजाक है? दूर गए ही थे तो कुछ और ले आते. बस एक कौडी. खैर, हमने भी एक फूटी कौडी रखी है अपने पास. ताकि कल को अगर कोई कहे कि मैं तुम्हें फूटी कौडी भी नहीं दूंगा, तो अपनी बत्तीसी के साथ यह दिखा सकूँ.

चलिए थोडा गीतों की ओर निगाह डालते हैं. एक साहब गुनगुना रहे थे - ' बडी दूर से आए हैं , प्यार का तोहफ़ा लाए हैं'. गोया नजदीक से आए होते तो तमंचा लेकर ही आते. एक दूसरा गीत है - ' बात निकली है तो फिर दूर तलक जाएगी. मेरा कहना है क्यों न जाए. आप दूरदर्शन देखते हैं, दूरभाष से सम्पर्क करते हैं, दूरबीन से दूर तक देख लेते हैं, और साथ ही आप अकसर दूरदृष्टि से काम लेते हैं, तो फिर बात आपकी दूर तक काहे नहीं जाएगी.

अत:, दूरियाँ हमारे जीवन के लिए आवश्यक बुराई है. अगर दूरी न रहे तो बॉलिवुड की साठ प्रतिशत फिल्मों को जबर्दस्त विषयाभाव से जूझना पडेगा. दूरी न रहे तो इसका बुरा असर हमारी याद्दश्त पर भी पड सकता है. अगर हम किसी से दूर नहीं होंगे, तो याद किसे करेंगे. ये और बात है कि कुछ लोग एक मेल की दूरी पर ही रहते हैं.

रेने देकार्त ने कहा था - मैं सोचता हूँ, इसलिए मैं हूँ. मेरा तो मानना है कि दूरी है इसलिए हम सब हैं. अच्छा, अब अगली पोस्ट तक के लिए मुझे भी आपसे दूर होना पडेगा. मगर आप टिप्पणियों से दूरी मत बना लिजिएगा.

शुक्रवार, अक्तूबर 06, 2006

आरम्भ


नमस्कार मित्रों,

वैसे तो मैं चिट्ठा-जगत का पुराना पाठक हूँ।साथ ही, अपनी कविताओं के माध्यम से (शब्दायन) आपके बीच होने का सौभाग्य भी प्राप्त है। पर यहाँ एक नए रूप में मुखातिब होना अच्छा लग रहा है।

इस चिट्ठे के आरम्भ के पीछे कई कारण और प्रेरणाएँ हैं। बहुत दिनों से यह विचार मन में चल रहा था कि गद्य के क्षेत्र में भी थोडी घुसपैठ की जाए। मगर हिम्मत जवाब दे जाती थी यह सोचकर कि अपनी व्यस्तताओं के बीच इसे नियमित रख पाने में सफल हो पाऊंगा या नहीं। इसी बीच मुझे एक दिव्य ज्ञान मिला कि सफलता और असफलता की चिन्ता करने वाले कायर होते हैं। फिर क्या था, दिल पर ले लिया हमने। और नतीजा आप देख ही रहे हैं।

दूसरी बात मैंने यह भी सोची कि यहाँ जैसे ढेर सारे जबरदस्त चिट्ठाकार हैं, तो मैं भी जबरदस्ती का चिट्ठाकार तो हो ही सकता हूँ। बस एक मात्रा का ही तो अन्तर है। फिर देखा कि कुछ लोग कविता लिखते-लिखते कुछ और भी लिखने लगे हैं। अब देखते हैं, हम कहाँ तक चल पाते हैं।

तो सारी तैयारी होने के बाद जब नाम रखने की बारी आई, हम उलझ से गए। और तभी हमारी उलझन को सुलझाने प्रतीक भाई प्रकट हुए। जैसे ही उन्होंने 'चिन्तन-कण' नाम बतलाया, हमने लपक कर लिया और झट से ब्लॉगर पर नामांकन करवा डाला। इतनी जल्दीबाज़ी दिखलाने का भी एक कारण था। मेरे साथ अकसर ऐसा होता है कि जो मैं सोचता हूँ, उसे करने में जरा भी देर हुई कि कोई दूसरा उसे कर डालता है। पता नहीं 'इन्फोरमेशन' कैसे लीक हो जाती है। जैसे मैं किसी मौलिक विषय पर फिल्म बनाने की बात सोच रहा होता हूँ, और कुछ ही दिनों में उस पर फिल्म बनकर फ्लॉप हो चुकी होती है। अब इसे क्या कहें? कहीं सोच का पेटेंट होता हो, तो जानकारी उपलब्ध कराई जाए।

अब जब इस पावन सरिता में छलाँग लगा ही चुका हूँ, तो डरना कैसा? पर आप सबों से एक ही गुजारिश है कि अगर तैरने की बजाए डूबने लगूँ तो कृपया मुझे किनारे तक छोड दीजिएगा, पिछले जन्म में किए गए पापों की सौगन्ध (वैसे इसकी पुनरावृत्ति इस जन्म में भी हो रही है शायद, पर पिछले जन्म वाली बात 'कन्फर्म' है) , दूबारा रूख नहीं करूँगा।

उधर नारद जी भी सघन चिकित्सा कक्ष से बाहर आने की तैयारी में हैं, मेरा यह प्रथम लेख उन्हें ही समर्पित।

- दीपक